Wednesday 4 June, 2014

विकासवाद के उलट

सभी को शायद ये ज्ञात है कि इस कायनात का हर अवयव प्रगतिशील है यानि  की उन्नयन की ओर गतिशील। डार्विन भी यही कहता है। पर बड़ी हँसी आती है ये सोच कर कि, इस भीड़ को हो क्या गया है, कहने को तो ये युवा हैं पर युवा होने का एक भी लक्षण दिखाई नहीं देता। गुलामी की ऐसी आदत गले पड़ी है कि अब वही जंजीर आभूषण दिखाई देती है। बेतुके और बेशरम, बिक़े हुए समाचार पत्र  जो भी झुनझुना पकड़ा देते है बस उसी पर बहस शुरू हो जाती है, कोई दिमाग लगाने का काम नहीं कि आखिर हम कर क्या  रहे है।
     अब यही देख लो, अभी 370 धारा  पर घिसा पिटा ढोल पीट रहे है।  अरे ये सब वेबकूफ़ियों से क्या हासिल हो रहा है।  किस जरूरतमंद का पेट भर रहा है। पर नहीं, हम तो ठहरे लकीर के फ़कीर, जो जितना वेबकूफ बना ले उतना अच्छा लीडर। वाह भई वाह। 
     अरे कभी अपनी गुलामी से निज़ात पाने की भी कोशिश कर लो, अरे यदि बात ही करनी है तो 295A धारा हटाने की भी कर लो।  सोच कर तो देखो तुम्हे तुम्हारे विचार रखने की भी आज़ादी  नहीं और बात करते हो बड़े बड़े सिद्धांतों की जिनके बारे में तुम्हे रंच मात्र भी ज्ञान नहीं।
     जरा सोचो इस इक्कीसवीं सदी  में भी भारत कितना अंध श्रद्धा का गुलाम है, अंध विश्वास से लड़ाई लड़ने वाले समझदारों की यहाँ हत्या कर दी जाती है जैसे की नरेंद्र दाभोलकर की गोली मार कर हत्या कर दी जाती है, और लोग जैसे सनल एडामारकू जैसे लोग किसी अंधविश्वास से पर्दा उठाने के चक्कर में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर हो जाते है। किताबों और सिनेमाओं पर समाज का आइना दिखाने की बजह से बैन कर दिया जाता है। पर हमारे कानों पर तो जूं भी नहीं रेंगती, किस तरह के आज़ाद है हम।

इसी सम्बन्ध में बीबीसी हिंदी द्वारा प्रकाशित एक लेख नीचे लिखे लिंक पर

http://bbc.in/1kKoxQd