आज दुनियां की स्थति देखते हुए एकदम ये विचार आया,कि जो कुछ हो रहा है आखिर ठीक ही तो है, लोगों में आपस में मतभेद है,अविश्वास है ,हिंसा है तो आखिर गलत क्या हो रहा है .
क्योंकि लगभग एक बहुत ही कम प्रतिशत है जो लोग प्रेम,अहिंसा को समझ सकते है और मानसिक रूप से भी स्वस्थ है तथा बुद्धिजीवी है ,बाकि सारा का सारा जन-जत्था तो लगभग एक ही मानसिक स्थति में जी रहा है बस क्रिया-कलापों में थोडा बहुत अंतर है .
कुछ खास बातें जो सभी लोगों कि मानसिक समानता उजागर कर देती है इस प्रकार है :-
१. सभी पड़ते है और पढ़ाते रहते है कि बेमानी पाप है ,पर असल जिंदगी में इस धरती के संसाधनों का जमकर उपयोग करो और ज्यादा से ज्यादा दौलत पैदा कर प्रतिष्ठा हासिल करो कैसे भी ..
2. किताबों में पदों कि जातिवाद बेकार है पर कहीं ऐसा न हो कि कोई जाती या समाज कि प्रतिष्टा पर सवाल कर सके.
३. हम औरों से श्रेष्ट है ये बात सनद रहे, क्योंकि हम किसी संस्कृति-विशेष ,देश-विशेष ,धर्म-विशेष से सम्बद्ध है .
४. पूत के पाँव पालने में ही दिखने लगते है सो बचपन से ही, जो भी सिखा सको चाहे वह गलत हो या सही ,सिखा दो,मनोविज्ञान तक बातें जमा दो,क्योंकि बच्चे के बड़े होते ही उसका तार्किक दिमाग काम करने लगेगा, उसे अभी नष्ट कर दो .
५.देश कि जनसंख्या बढाने में भरपूर सहयोग दो,पर तरीका संस्कृतिक होना चाहिए .
६. प्रेम कि बात तो देखो करो मत ये सब तो किताबों की बातें हैं और सब फिर संस्कृति के अनुकूल भी तो नहीं हैं.
अब इस मनोदशा से ग्रसित व्यक्ति और कर भी क्या सकता है अगर वो कुंठाग्रस्त न होगा तो क्या होगा ,मरने मारने के सिवाय और सोच भी क्या सकता है . ये सब नष्ट होने के लक्षण हैं और होना भी चाहिए आखिर ऐसी मानवता और किसी को क्या देने में समर्थ है .लड़ कर इन्हें सुकून मिलता है और साथ साथ मानवता कई सदियों पीछे चली जाती है,जो कि इनके पुरातन होने के प्रमाण भी मुहैया कराती है क्योंकि पीछे के समय में रहना ही इन्हें रास आता है.
रही बात मुट्ठी भर बुद्दिजीवियों कि तो उनका तो दुर्भाग्य है जो इस दुनियां में आ टपके .उनके लिए तो कोई जगह ही नहीं वो तो किराये पर रहते आ रहे हैं और फिर गेंहूँ के साथ गुण का पिसना तो स्वाभविक सी बात है .
1 comment:
बहुत ही उम्दा व विचारणीय प्रस्तुती ,वास्तव में बुद्धिजीवियों का जीवन दुखों से भर गया है क्योकि उनमे इंसानियत जिन्दा है ?
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