जीवन की सुन्दरता, विशिष्टता का एकमात्र रहस्य है उसकी अप्रत्यासित प्रकृति. जीवन अभोतिक है इसके अंतर्गत समय जैसी कोई अवधारणा नहीं होती ,हर पैमाना मानव निर्मित है कोई भी पल ,छोटे से छोटा पैमाना अपने आप में विशिष्ट कहा जा सकता है.. जो भी लक्ष्य , मायने , अर्थ आज हम जानते है सब के सब मानव निर्मित है या कहें की सामाजिक है सांसारिक है . इन सभी चीजों का जीवन या जीने की उर्जा से कोई लेना देना नहीं है
मेरे अनुसार हमने वेबजह ही जवानी , बुदापे की परिभाषा बना ली है व्यक्ति हमेशा एक ही मानसिक अवस्था में रह सकता है उसे हम बचपन कह सकते है , मनुष्य की आत्मा हमेशा स्वतंत्रता और उत्साह को ही तलाशती रहती है पर ज्यों , ज्यों उम्र बदती है सामाजिक अहंकार, स्वार्थ ,और प्रभुत्व जैसी काल्पनिक परिभाषायें बचपन छीन ले जाती है , तभी तो सारे के सारे बड़े कहते है "बचपन तो बचपन था उसका जबाब नहीं" "बचपन सबसे उत्तम था " यदि बचपन ही सर्वोत्तम है तो इसका मतलब है की बड़े होकर हम उन्नत होने की बजाय उल्टा गर्त में गिरते जाते है , वास्तविकता भी यही है वचपन के साथ मानव अपने सीखने की प्रबृत्ति खोता चला जाता है ,अर्थात जो जीवन की परिभासा मानी गयी है वह जीवन न होकर सिर्फ पल पल मौत के करीब जाना है,
जीवन का तो अर्थ ही है , आनंदमय रहना सबकुछ समझते हुए ज्यादा से ज्यादा सहज होते जाना , और उम्र के साथ साथ और आधिक आनंदित और उन्नत होते जाना . यही कारन है की महान लोग कहते है की किसी के दुनियां में आने और जाने के से कोई फर्क नहीं पड़ता , यदि फर्क पड़ता है तो उसके जीवन जीने के तरीके से , उसके जीवन के आनंदित पल वहुमुल्य हो जाते हैं . जो औरों को जीवन की अर्थवत्ता खुद जी कर बता सकता हो वाकई में वही इंसान है इसी पैमाने पर विचार करते हुए जीवन में घटी एक महत्वपूर्ण घटना याद आई जो आप तक पहुंचा रहा हूँ.
बात छात्र जीवन की है जब तीसरी कक्षा उत्तीर्ण की थी ,बारिस का समय था छुट्टियाँ चल रही थी, एक दिन खेलने मैदान मे पहुंचे तो देखा की काफी बारिस हों कर चुकी थी और मैदान गीला था सिर्फ एक मित्र के आलबा कोई और नहीं पहुंचा था . हम दोनों ने चलते चलते दो युवकों की बात पर ध्यान दिया तो पता चला की पास ही के गाँव मे जो की १६-१७ किलोमीटर दूर है एक नदी (क्योतन) मे एक ट्रक डूब गया है , मन मे बड़ी जिज्ञासा हुई क्योकि ऐसी दुर्घटनाओं के बारे मे सिर्फ सुना था देखा नहीं था और फिर वह गाँव (उदयपुर )एक प्राचीन शिव मंदिर की वजह से भी विख्यात था जहां हम कभी नहीं गए थे

उदयपुर का मंदिर
तो हमने होसला जुटाया और अंदाज लगाया की यदि १ घंटे मे पहुंचे तो २ ढाई घंटे मे तो घर तक वापस पहुँच ही जायेंगे , उस समय ये निर्णय बड़ा साहसिक रहा था क्योकि नयी सायकिल घर बालों ने खरीद कर दी थी और नया-नया चलाना सीखा था , अब तक कभी इतनी लम्बी दूरी भी नहीं चले थे
फिर क्या था दोनों मित्र एक ही सायकिल पर सवार हो कर चल दिए. जाते समय तो कौतुहल इतना ज्यादा था की समय का पता भी नहीं लगा और हम चलते चलते नदी तक पहुँच गए. वहां पहुँच कर देखा की सब कुछ सामान्य था और ट्रक तो कब का निकाला जा चुका था, हतासा हाथ लगी फिर सोचा की क्यों न यहाँ तक आये है तो वह प्राचीन मंदिर भी देख लिया जाये ,उस समय बचपन मे चित्रकथा ,और धारवाहिकों के चलते पुराने मंदिरों, किलो, खंड-हरों का मनोविज्ञान पर अजीव सा असर था ,हमने निर्णय लिया और हम मंदिर की तरफ चल दिए . सारा शरीर थक चुका था पर जिज्ञासा के सामने ये बात पता ही नहीं रही .
मंदिर पहुँच कर कुछ ऐसा महसूस हुआ की जैसे कोई खज़ाना हाथ लग गया हो, उत्साहित मन सब के सब द्रश्यों को याद कर लेना चाहता था , फिर एक महाशय से समय पुछा तो होश खो गए ,दिमाग में बैठा परिवार का डर निकल कर सामने आ गया और साथ ही साथ थकान भी रंग दिखाने लगी , लौटना शुरू किया तो पैर जबाब देने लगे ,हर पांच मिनिट में हम बदल बदल कर सायकल चलाते ,समय जैसे थम सा गया था , जैसे तैसे डरते डरते ,थके हुए हम घर बापस आये ,घर वालों का गुस्सा एक साथ निकल पड़ा क्योंकि अब तक पांच घंटे हो चुके थे . काफी खरी-खोटी सुनने के बाद हम खाना खाकर सो गए , पर सारी की सारी यात्रा जैसे मनोविज्ञानं में गहरे तक उतर चुकी थी, आज भी जब वो यात्रा याद आती है तो बही थकान , वाही उत्साह , वही डर ,वही साहस महसूस किया जा सकता है.
शुरुआत के उस दो घंटे के सफ़र को जिस गति से उत्साह पूर्वक तय किया था यदि उसी उत्साह उसी कौतुहल के साथ अगर जिंदगी को जिया जाये ,तो जिंदगी आज भी उतनी ही हसीन है ,वही आनंद हम आजीवन महसूस कर सकते है. यही जीवन का लक्ष्य भी है की निडर निर्भीकता और उत्साह से इसे जिया जाये, इसके पल पल का आनंद उठाया जाये .
मंदिर पहुँच कर कुछ ऐसा महसूस हुआ की जैसे कोई खज़ाना हाथ लग गया हो, उत्साहित मन सब के सब द्रश्यों को याद कर लेना चाहता था , फिर एक महाशय से समय पुछा तो होश खो गए ,दिमाग में बैठा परिवार का डर निकल कर सामने आ गया और साथ ही साथ थकान भी रंग दिखाने लगी , लौटना शुरू किया तो पैर जबाब देने लगे ,हर पांच मिनिट में हम बदल बदल कर सायकल चलाते ,समय जैसे थम सा गया था , जैसे तैसे डरते डरते ,थके हुए हम घर बापस आये ,घर वालों का गुस्सा एक साथ निकल पड़ा क्योंकि अब तक पांच घंटे हो चुके थे . काफी खरी-खोटी सुनने के बाद हम खाना खाकर सो गए , पर सारी की सारी यात्रा जैसे मनोविज्ञानं में गहरे तक उतर चुकी थी, आज भी जब वो यात्रा याद आती है तो बही थकान , वाही उत्साह , वही डर ,वही साहस महसूस किया जा सकता है.
शुरुआत के उस दो घंटे के सफ़र को जिस गति से उत्साह पूर्वक तय किया था यदि उसी उत्साह उसी कौतुहल के साथ अगर जिंदगी को जिया जाये ,तो जिंदगी आज भी उतनी ही हसीन है ,वही आनंद हम आजीवन महसूस कर सकते है. यही जीवन का लक्ष्य भी है की निडर निर्भीकता और उत्साह से इसे जिया जाये, इसके पल पल का आनंद उठाया जाये .