Thursday 10 June, 2010

जीवन की सुन्दरता -- उसका अप्रत्याशित स्वरुप


जीवन की सुन्दरता, विशिष्टता का एकमात्र रहस्य है उसकी अप्रत्यासित प्रकृति. जीवन अभोतिक है इसके अंतर्गत समय जैसी कोई अवधारणा नहीं होती ,हर पैमाना मानव निर्मित है कोई भी पल ,छोटे से छोटा  पैमाना अपने आप में विशिष्ट कहा जा सकता है.. जो भी लक्ष्य , मायने , अर्थ आज हम जानते है सब के सब मानव निर्मित है या कहें की सामाजिक है सांसारिक है . इन सभी चीजों का जीवन या जीने की उर्जा से कोई लेना देना नहीं है  

            मेरे अनुसार हमने वेबजह ही जवानी , बुदापे की परिभाषा बना ली है व्यक्ति हमेशा एक ही मानसिक अवस्था में रह सकता है उसे हम बचपन कह सकते है , मनुष्य की आत्मा हमेशा स्वतंत्रता और उत्साह को ही तलाशती रहती है पर ज्यों , ज्यों  उम्र बदती है सामाजिक अहंकार, स्वार्थ ,और प्रभुत्व जैसी  काल्पनिक परिभाषायें बचपन  छीन ले जाती है , तभी तो सारे के सारे बड़े कहते है "बचपन तो बचपन था उसका जबाब नहीं" "बचपन सबसे उत्तम था " यदि बचपन ही सर्वोत्तम है तो इसका मतलब है की  बड़े होकर हम उन्नत होने की बजाय उल्टा गर्त  में गिरते  जाते है , वास्तविकता भी यही है वचपन के साथ मानव अपने सीखने  की प्रबृत्ति खोता चला जाता है ,अर्थात जो जीवन की परिभासा मानी गयी  है वह जीवन न होकर सिर्फ पल पल मौत के करीब जाना है, 
            जीवन का तो अर्थ ही है , आनंदमय रहना सबकुछ समझते हुए ज्यादा से ज्यादा सहज होते जाना , और  उम्र के साथ साथ और आधिक आनंदित और उन्नत होते जाना . यही कारन है की महान लोग कहते है की  किसी के  दुनियां में आने और जाने के से कोई फर्क नहीं पड़ता , यदि फर्क पड़ता है तो उसके जीवन जीने के तरीके से , उसके जीवन के आनंदित पल वहुमुल्य हो जाते हैं . जो औरों को जीवन की अर्थवत्ता  खुद जी कर बता सकता हो वाकई में वही  इंसान है इसी पैमाने पर विचार करते हुए जीवन में घटी एक महत्वपूर्ण घटना याद आई जो आप तक पहुंचा रहा हूँ. 
  
            बात छात्र जीवन की है जब तीसरी कक्षा उत्तीर्ण की थी ,बारिस का समय था छुट्टियाँ चल रही थी, एक दिन खेलने मैदान मे पहुंचे तो देखा की  काफी बारिस हों कर चुकी थी और मैदान गीला था सिर्फ एक मित्र के आलबा कोई और नहीं पहुंचा था . हम दोनों ने चलते चलते दो युवकों की बात पर  ध्यान दिया तो पता चला की पास  ही के गाँव मे जो की १६-१७  किलोमीटर दूर है एक नदी (क्योतन) मे एक ट्रक डूब गया है , मन मे बड़ी जिज्ञासा हुई क्योकि ऐसी दुर्घटनाओं के बारे मे सिर्फ सुना था देखा नहीं था और फिर वह गाँव (उदयपुर )एक  प्राचीन  शिव मंदिर की वजह से भी विख्यात था  जहां हम कभी नहीं गए थे 
              
                                      उदयपुर का मंदिर 

             तो हमने होसला जुटाया और अंदाज लगाया की यदि १ घंटे मे पहुंचे तो २ ढाई घंटे मे तो घर तक वापस पहुँच ही जायेंगे , उस समय ये निर्णय बड़ा साहसिक रहा था क्योकि नयी  सायकिल  घर बालों ने खरीद कर दी थी और  नया-नया चलाना सीखा था , अब तक कभी इतनी लम्बी दूरी भी नहीं चले थे

          फिर क्या था दोनों मित्र एक ही सायकिल पर सवार हो कर चल दिए. जाते समय तो कौतुहल  इतना ज्यादा था की समय का पता भी नहीं लगा और हम चलते चलते नदी तक पहुँच गए. वहां पहुँच कर देखा की सब कुछ सामान्य था और ट्रक तो कब का निकाला जा चुका  था,  हतासा हाथ  लगी फिर सोचा की क्यों न यहाँ तक आये है तो  वह प्राचीन मंदिर भी देख लिया जाये ,उस समय बचपन मे चित्रकथा ,और धारवाहिकों के चलते पुराने मंदिरों, किलो, खंड-हरों  का मनोविज्ञान पर अजीव सा असर था ,हमने निर्णय लिया और हम मंदिर की तरफ चल दिए . सारा शरीर थक चुका था पर जिज्ञासा के सामने ये बात पता  ही नहीं रही .
      मंदिर पहुँच कर कुछ ऐसा महसूस हुआ की जैसे कोई खज़ाना हाथ लग गया हो, उत्साहित मन सब के सब द्रश्यों को याद कर लेना चाहता था , फिर एक महाशय से समय पुछा तो होश खो गए ,दिमाग में बैठा परिवार का डर निकल कर सामने आ गया और साथ  ही साथ थकान  भी रंग दिखाने  लगी , लौटना शुरू किया तो पैर जबाब देने लगे ,हर पांच मिनिट में हम बदल बदल कर सायकल चलाते ,समय जैसे थम सा गया था , जैसे तैसे डरते डरते ,थके हुए हम घर बापस आये ,घर वालों  का गुस्सा एक साथ निकल पड़ा क्योंकि अब तक पांच घंटे हो चुके थे . काफी खरी-खोटी सुनने के बाद हम खाना खाकर सो गए , पर सारी की सारी यात्रा जैसे मनोविज्ञानं  में गहरे तक उतर चुकी थी, आज भी जब  वो यात्रा याद आती है तो  बही थकान , वाही उत्साह , वही डर ,वही साहस महसूस किया जा सकता है.
          शुरुआत के उस दो घंटे के सफ़र को जिस गति से उत्साह पूर्वक तय किया था यदि उसी उत्साह उसी कौतुहल के साथ अगर जिंदगी को जिया जाये ,तो जिंदगी आज भी उतनी ही हसीन है ,वही  आनंद हम आजीवन महसूस कर सकते है. यही जीवन का लक्ष्य भी है की निडर निर्भीकता और उत्साह से इसे जिया जाये, इसके पल पल का आनंद उठाया जाये . 
          

Monday 7 June, 2010

यथार्थ में प्रेम


                        कहा जाता है की प्रेम करना चाहिए पर समझ ये नहीं आता की प्रेम कैसे किया जा सकता है , क्या कोई ऐसी विधि मौजूद है जो हमें प्रेम करना सिखा सके .हर तरफ एक ही बात रटी जाती है की हर किसी से प्रेम करना ही जीवन है , पर क्या कहने वाले खुद  जान पाते  है की आखिर ये प्रेम है क्या . संदेह  तो इसी बात पर हों जाता है की जिस किसी ने प्रेम का नामकरण किया होगा, उसे क्या चीज़  जान पड़ती होगी , आखिर किस को नाम प्रेम दिया गया .
       
                       ये निहायत ही सत्य है की लोग कहीं न कहीं भरम में खोए हुए है , क्योंकि यदि  शायद जिसको प्रेम कहा गया है उसको जान लिया जाता तो सभी के सभी स्वार्थों से परे जा चुके होते. आज की दुनिया तो माता , पिता , बहन , भाई , पत्नी , पति के बीच पाए जाने वाले सहवंध तक ही प्रेम को सीमित रखते है , यदि बात कुछ  बड़े स्तर की हों तो  मुकाबला समाज , जाती , और देश तक चला जाता है . पर इन  सभी में तो अहंकार ज्यादा और प्रेम नदारत दिखाई पड़ता है, कहीं न कहीं हम इसे प्रेम समझ कर अपने से जुडी  हरेक चीज़ को ऊँचा दर्जा देना चाहते है.
   
            
                        ये बड़े ही सोचने की बात है की क्या प्रेम की कोई सीमा भी हों सकती होगी , क्या प्रेम किसी मनुष्य किसी परिवार , किसी जाती , किसी देश तक ही सीमित होगा , नहीं ये नहीं हों सकता . कही न कहीं हमारी परिभाषा ही गलत होगी . ये सब तो बिभाजन है ये प्रेम कैसे हों सकता है , प्रेम तो ब्रह्माण्ड को एक ही रूप में एकत्रित कर देता है , ये तोड़ नहीं सकता . 

                          प्रेम का कोई स्वरुप नहीं ये खुद ही परमात्मा है , इसको कोई नाम नहीं दिया जा सकता , ये किसी भी तरह से भौतिक नहीं हों सकता ,ये किसी भी रिश्ते की बपौती नहीं हों सकता , जो लोग सिर्फ रिश्तों को ही प्रेम मानते है उन्हें ये जान लेना चाहिए की वे सच्चाई से विरोध कर रहे है और वे खुद ही सच से दूर रहना चाहते है .


                        प्रेम किया नहीं जा सकता ये किसी आत्मा की अपनी विशिष्टता होती है .ये सिखाया नहीं जा सकता , पर हाँ प्रकिरती के नजदीक जाकर , झूठ की दुनिया को गहरे से समझ कर उससे छुटकारा पाकर अपने  दृष्टी कोण  को प्रेमी जरुर बनाया जा सकता है ,अर्थात प्रेमी बनकर उन्नत हों जाना संभव है ,क्योंकि प्रेमी का अर्थ है कायनात में पाए  जाने वाले हर एक अस्तित्व से प्रेम की संवेदना के जरिये जुड़ जाना , इस तरह से हर एक प्रेमी श्रेष्ट है , और प्रेम पर किसी भी तरह का पर्दा डालना , रोकना , या प्रताड़ित करना  परमात्मा के साम्राज्य में  अन्याय है .