Saturday, 21 August 2010

महाविद्यालयों मैं चल रही मनमानी

यह बात सर्वथा सत्य है कि मानवीयता सदैव ही आगे कि ओर अग्रसर रही है,जैसे कि हम प्रारंभिक तौर पर पशु थे फिर निरंतर विकास कि ओर प्रवत्त रहे और अंततः हम इस दौर में है जब कि हम सभ्य कहलाते है .अर्थात निरंतर परिवर्तन होते रहे, यहाँ पर इस बात का विशेष ध्यान रखा जाये कि बात वैचारिक परिवर्तनों कि हो  रही है न किअंधाधुन्द होते शहरीकरण कि .
           परिवर्तन आवश्यक है हम वर्तमान का आंकलन कभी भी पुराने ढंग से नहीं कर सकते,अर्थात समय के साथ साथ हर संस्कृति, हर शैली में परिवर्तन आवश्यक है
           शिक्षा के  क्षेत्र में भी परिवर्तन हुए है जैसे कि आज इस बात पर जोर दिया जाता है कि विद्यार्थी कोई वस्तु नहीं है , उन्हें बंधी बनाकर नहीं सिखाया जा सकता. बात  पूर्णतः सत्य भी है विद्यार्थी पर किसी भी प्रकार का  शारीरिक और मानसिक आघात वर्जनीय होना ही चाहिए. दरअसल इस तरह कि शैली  का निर्माण किया जाना चाहिए जिससे विद्यार्थी स्वतः ही शिक्षा कि  ओर प्रवत्त हो .
           इस सन्दर्भ में आमिर खान निर्मित फिल्मे "तारे जमीं पर " और "थ्री इडियट" काबिले तारीफ है . खासतौर पर "थ्री इडियट"  कि सफलता से उचे ओहदों पर बैठे  शिक्षक  और कार्यकारणी सदस्यों को  शिक्षा लेनी चाहिए , कि आखिर किस तरह के स्नातक तैयार करना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए .
        ये बात बड़े शर्म की है कि उच्च शिक्षा शैक्षणिक संस्थाओं में जिन्हें शिक्षा का मंदिर कहा जाता है भ्रष्टाचार और अहंकार 
साफ़ नजर आते है . महाविद्यालयों मैं चूँकि शिक्षक विद्यार्थियों पर हाथ नहीं उठा सकते तो उनके पास शोषित करने के कई और तरीके हैं  जैसे किसी को पास या फ़ैल करना भी कुछ प्रतिशत उनके हाथ में है जिसके जरिये वे आसानी से अपने अभिमान को पोषित कर लेते हैं . ये उत्तरदायित्व तो शिक्षक का है कि वह विद्यार्थियों कि मनोदशा समझते हुए कुछ ऐसे क्रियाशील तरीके विकसित करे जिससे कि शिक्षा में आकर्षण पैदा हो सके.
         उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों कि उदासीनता का  कारण  कुछ फीसदी तक  शिक्षकों का अहंकार , उनके अवैज्ञानिक तरीके तथा संकुचित व्यवहार  भी है .हाँ ये बात भी सच है कि कुछ एक विद्यार्थी शिक्षा का केवल  नाम करना चाहते है पर कहीं न कहीं उसका  जिम्मेदार भी सामाजिक ढांचा ही है  और फिर हरेक को एक ही नजरिये से देखना मूर्खता है.
                      ऊँचे स्तर कि शिक्षा में आवश्यक है कि विद्यार्थियों से मित्रवत व्यवहार करते हुए उनकी समस्याओं , उनकी गतिविधियों  से अवगत हो उनको मार्गदर्शन प्रदान किया जाये , डाट -डपट कर, उन्हें भविष्य में आगे न बढने देने कि धोंस देकर मजबूर करना निहायत ही अमानवीय है . 
          एक स्याह पहलु ये भी है कि आखिर ये किस तरह का "वायरस" सारे  भारतीय संस्थानों में व्याप्त है कि जितना बड़ा ओहदा उतना ही गंभीर अहंकार ,आखिर क्यों कर ये दफ्तरशाही व्याप्त है , व्यक्ति आखिर सहज क्यों नहीं है ,थोडा सा पद पाते ही पाँव जमीन पर नहीं टिकते , बोलने का अंदाज़ बदल जाता है ; फिर यही लोग अपने उपर होते भ्रष्टाचार को देख कर रोना रोते है . ये बात लोगों को समझ क्यों नहीं आती कि यदि नींव ही खोखली है तो फिर भवन मजबूत कैसे हो सकता है .
              अंततः यह बात याद रखने योग्य है कि वास्तव में हम इंसान से बढ़कर और कुछ भी नहीं . पद ,प्रतिष्टा,धन  यह सब झूठ है ये सब शांति कर नहीं हो सकते , व्यक्ति को  पूर्णता का भाव तभी प्राप्त हो सकता है जब वह नितांत सहज हो .

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