Friday 26 December, 2014

हद हो गयी मूर्खता की अब तो....(फिल्म पी के पर उठ रहे वेबजह के सवालों पर एक प्रतिक्रिया)

हद हो गयी मूर्खता की अब  तो....
बेहोशी को सघन करने के उपाय किये जा रहे है। सारी व्यवस्थायें जो भी समाज ने जुटाई हैं, वो हैं ही इसीलिए की निद्रा और भी गहरी हो जाये। बचपन से ही विश्वास करने की शिक्षा दी जा रही है, आलोचना करने की, या प्रश्न उठाने की प्रतिभा दबाई जा रही है। तभी तो आज कोई आइंस्टीन हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं, या की कोई बुद्ध जन्म ले सके ऐसी सारी सम्भावनायें ख़त्म की जा रहीं हैं 
उससे फायदा है, फायदा है उन्हें जो भीरु हैं, कायर हैं, नकलची हैं,जिनमें साहस नहीं, कि सच को स्वीकार कर सकें। अब जैसा की हम देखते ही हैं अक्सर लोग जो भयभीत होते हैं वो हिम्मतवर लोगों के किये कार्यों की लुकछिप कर आलोचना करते नजर आते हैं, क्योंकि ये तो कुछ रचनात्मक कर नहीं सकते तो फिर अब अहंकार का क्या करें, उसे तो ठेस पहुचती ही है कि हम तो कुछ आज तक कर नहीं सके, ये कैसे कर रहे हैं। और फिर इनको करना भी क्या है, इनको पता भी क्या है, एक तरह से गम के मारे दीनहीन डरपोक। जिस तरह ये सम्प्रदायों की आलोचना पर नाक फुलाने लगते हैं, उनके बारे में खुद इन्हे पता भी कुछ नहीं। अगर पी के की बात करें, तो कुछ लोग जो बुरा-भला कह रहे हैं,उन्होंने हो सकता है फिल्म देखी ही ना हो। वो तो लकीर के फ़क़ीर एक अपना भाई(चोर) कुछ कह रहा है तो कुछ अपन भी ताल ठोक दो, नहीं तो कहीं ऐसा न हो, कि भीड़ में अपना (भ्रम में बनाया हुआ) अस्तित्व खो जाये।
कोई भी बात फिल्म पी के में नयी नहीं कही गयी, यही सब तो ओशो, बुद्ध, कबीर, नानक बोल रहे थे, (या की यूँ कहें कि फिल्म के डायरेक्टर ओशो साहित्य से प्रभावित हैं।) तब भी ये बुरा भला कहने वालों के पास निंदा के अलावा कोई रास्ता नहीं था, और ये आज भी वहीँ के वहीँ हैं। (खूब बजाओ बीन हम तो भैंस से भी निम्न कोटि के हैं। )
साहस चाहिए, सच स्वीकार करने का साहस चाहिए। सभी महापुरुषों ने जो उपलब्ध हुए है, इसी लोक में अलौकिक के रहस्य कि ओर इशारे किये हैं पर रहस्य में कूदने के लिए साहस चाहिए, एक अथाह साहस, धार की धार है चलना इस रास्ते पर, अपना सब कुछ, यहाँ तक कि खुद को भी, अपने छोटे से छोटे अहम को भी विसराना पड़ेगा, संप्रदाय जैसी तुच्छ चीज़ों का तो दो कौड़ी का भी मोल नहीं। पर ये साहस धर्मभीरु वेवकूफों के लिए तो दूर की कौड़ी है, तो करें भी क्या, बस घिसे पिटे नियम कायदों की दुहाई देते रहते हैं और उनकी आड़ में खुद का अहंकार पोषित करते रहते हैं तभी तो धर्मों के नाम पर विवाद खड़े है, तभी तो धर्मरक्षा और जिहाद के नाम पर हत्याएं और क्रूरताओं को अंजाम देते हैं।

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