Tuesday, 13 January 2015

शाश्वत क्या है?

अगर डार्विन के विकासवाद पर ध्यान दें या फिर खुद अपने बचपन से अब तक के सफ़र को देख लें; तो हमें ज्ञात हो सकता है कि हम अपने अनुभव के आधार पर बदलाव लाते हैं, सीखते हैं और आगे का सफ़र जारी रहता है, इस यात्रा में दिमाग हमारा सहयोगी बन जाता है। यही है परिवर्तन, जो काम का है उससे काम लें और जो बेकाम हो चुका उसे वहीँ छोड़ आगे बढ़ते चलें, निरंतर और निरंतर उन्नयन की ओर। ये प्रवाह है, यहाँ आसानी है सहजता है, और ये प्राकृतिक भी है। इस कायनात में हम कभी ऐसा नहीं देखते की कुछ ठहरा हुआ है, और जो ठहर गया उसे हम मृत मानते हैं। जो भी एक स्थान पर ठहरा वो मर गया समझिए। 
      पर जब भी बात नयेपन, सभ्यता और संस्कृति की आती है तो लोग वही घिसा-पिटा राग आलापने लगते हैं। हम श्रेष्ठ हैं हमारी संस्कृति श्रेष्ठ है; जो पहले कभी घट गया वही शाश्वत है। क्या कभी ये नहीं लगता की हम बहुत ही बचकानी बात कर रहे हैं। क्योंकर हम प्रकृति की खिलाफत कर रहे हैं। जो कभी था; वह अब नहीं हैं, उस समय वो ठीक होगा; पर आज कहाँ उसे घसीटे फिर रहे हो, क्या फायदा होगा। आज के तो सर्वेसर्वा तुम खुद हो; तुम खुद ही लिखो ना आज की परिभाषाएं। जिम्मेदारी पूरी करो नए शोध करो; गढ़ो जैसा गढ़ना चाहते हो आज का युग। हाँ अनुभव के तौर पर पुराने को देख सकते हो; उससे नया कैसे आएगा, ये सोच सकते हो युवा पीढ़ी को हम भविष्य कहते हैं, और उसी के नयेपन को हम नकार देते हैं, ये कैसे तौर-तरीके अपना रखे हैं। आगे देखना आवश्यक है यदि चोट खाने से बचना चाहते हो तो। 

चल भाई! कुछ आगे बढें; अभी दूर तलक जाना है।
बहुत सराहा पुराने को, अब कुछ और भी बनाना है।

बीबीसीहिंदी की पोस्ट में अपने आप को तलाशने की कोशिश करें; जो नीचे की लिंक से शेयर की गयी है। 
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/01/150113_india_ancient_vs_modern_rns

Friday, 26 December 2014

हद हो गयी मूर्खता की अब तो....(फिल्म पी के पर उठ रहे वेबजह के सवालों पर एक प्रतिक्रिया)

हद हो गयी मूर्खता की अब  तो....
बेहोशी को सघन करने के उपाय किये जा रहे है। सारी व्यवस्थायें जो भी समाज ने जुटाई हैं, वो हैं ही इसीलिए की निद्रा और भी गहरी हो जाये। बचपन से ही विश्वास करने की शिक्षा दी जा रही है, आलोचना करने की, या प्रश्न उठाने की प्रतिभा दबाई जा रही है। तभी तो आज कोई आइंस्टीन हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं, या की कोई बुद्ध जन्म ले सके ऐसी सारी सम्भावनायें ख़त्म की जा रहीं हैं 
उससे फायदा है, फायदा है उन्हें जो भीरु हैं, कायर हैं, नकलची हैं,जिनमें साहस नहीं, कि सच को स्वीकार कर सकें। अब जैसा की हम देखते ही हैं अक्सर लोग जो भयभीत होते हैं वो हिम्मतवर लोगों के किये कार्यों की लुकछिप कर आलोचना करते नजर आते हैं, क्योंकि ये तो कुछ रचनात्मक कर नहीं सकते तो फिर अब अहंकार का क्या करें, उसे तो ठेस पहुचती ही है कि हम तो कुछ आज तक कर नहीं सके, ये कैसे कर रहे हैं। और फिर इनको करना भी क्या है, इनको पता भी क्या है, एक तरह से गम के मारे दीनहीन डरपोक। जिस तरह ये सम्प्रदायों की आलोचना पर नाक फुलाने लगते हैं, उनके बारे में खुद इन्हे पता भी कुछ नहीं। अगर पी के की बात करें, तो कुछ लोग जो बुरा-भला कह रहे हैं,उन्होंने हो सकता है फिल्म देखी ही ना हो। वो तो लकीर के फ़क़ीर एक अपना भाई(चोर) कुछ कह रहा है तो कुछ अपन भी ताल ठोक दो, नहीं तो कहीं ऐसा न हो, कि भीड़ में अपना (भ्रम में बनाया हुआ) अस्तित्व खो जाये।
कोई भी बात फिल्म पी के में नयी नहीं कही गयी, यही सब तो ओशो, बुद्ध, कबीर, नानक बोल रहे थे, (या की यूँ कहें कि फिल्म के डायरेक्टर ओशो साहित्य से प्रभावित हैं।) तब भी ये बुरा भला कहने वालों के पास निंदा के अलावा कोई रास्ता नहीं था, और ये आज भी वहीँ के वहीँ हैं। (खूब बजाओ बीन हम तो भैंस से भी निम्न कोटि के हैं। )
साहस चाहिए, सच स्वीकार करने का साहस चाहिए। सभी महापुरुषों ने जो उपलब्ध हुए है, इसी लोक में अलौकिक के रहस्य कि ओर इशारे किये हैं पर रहस्य में कूदने के लिए साहस चाहिए, एक अथाह साहस, धार की धार है चलना इस रास्ते पर, अपना सब कुछ, यहाँ तक कि खुद को भी, अपने छोटे से छोटे अहम को भी विसराना पड़ेगा, संप्रदाय जैसी तुच्छ चीज़ों का तो दो कौड़ी का भी मोल नहीं। पर ये साहस धर्मभीरु वेवकूफों के लिए तो दूर की कौड़ी है, तो करें भी क्या, बस घिसे पिटे नियम कायदों की दुहाई देते रहते हैं और उनकी आड़ में खुद का अहंकार पोषित करते रहते हैं तभी तो धर्मों के नाम पर विवाद खड़े है, तभी तो धर्मरक्षा और जिहाद के नाम पर हत्याएं और क्रूरताओं को अंजाम देते हैं।

Wednesday, 4 June 2014

विकासवाद के उलट

सभी को शायद ये ज्ञात है कि इस कायनात का हर अवयव प्रगतिशील है यानि  की उन्नयन की ओर गतिशील। डार्विन भी यही कहता है। पर बड़ी हँसी आती है ये सोच कर कि, इस भीड़ को हो क्या गया है, कहने को तो ये युवा हैं पर युवा होने का एक भी लक्षण दिखाई नहीं देता। गुलामी की ऐसी आदत गले पड़ी है कि अब वही जंजीर आभूषण दिखाई देती है। बेतुके और बेशरम, बिक़े हुए समाचार पत्र  जो भी झुनझुना पकड़ा देते है बस उसी पर बहस शुरू हो जाती है, कोई दिमाग लगाने का काम नहीं कि आखिर हम कर क्या  रहे है।
     अब यही देख लो, अभी 370 धारा  पर घिसा पिटा ढोल पीट रहे है।  अरे ये सब वेबकूफ़ियों से क्या हासिल हो रहा है।  किस जरूरतमंद का पेट भर रहा है। पर नहीं, हम तो ठहरे लकीर के फ़कीर, जो जितना वेबकूफ बना ले उतना अच्छा लीडर। वाह भई वाह। 
     अरे कभी अपनी गुलामी से निज़ात पाने की भी कोशिश कर लो, अरे यदि बात ही करनी है तो 295A धारा हटाने की भी कर लो।  सोच कर तो देखो तुम्हे तुम्हारे विचार रखने की भी आज़ादी  नहीं और बात करते हो बड़े बड़े सिद्धांतों की जिनके बारे में तुम्हे रंच मात्र भी ज्ञान नहीं।
     जरा सोचो इस इक्कीसवीं सदी  में भी भारत कितना अंध श्रद्धा का गुलाम है, अंध विश्वास से लड़ाई लड़ने वाले समझदारों की यहाँ हत्या कर दी जाती है जैसे की नरेंद्र दाभोलकर की गोली मार कर हत्या कर दी जाती है, और लोग जैसे सनल एडामारकू जैसे लोग किसी अंधविश्वास से पर्दा उठाने के चक्कर में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर हो जाते है। किताबों और सिनेमाओं पर समाज का आइना दिखाने की बजह से बैन कर दिया जाता है। पर हमारे कानों पर तो जूं भी नहीं रेंगती, किस तरह के आज़ाद है हम।

इसी सम्बन्ध में बीबीसी हिंदी द्वारा प्रकाशित एक लेख नीचे लिखे लिंक पर

http://bbc.in/1kKoxQd

Sunday, 29 May 2011

सर्वप्रथम इंसान की पहचान जरुरी, फिर उसके शब्दों की ......

ये मेरा स्वयं का मत है कि किसी अमुक की बात का सही अर्थ निकालने हेतु सर्वप्रथम तो उसकी वैचारिक पहचान होना जरुरी है क्योंकि बात के तो कई मतलब निकाले जा सकते हैं | और शायद कई वर्षों से जनता ये गलती करती आ रही कि वे बात के सही मायने नहीं खोज पाते और किसी के भी बारे में अपनी खुद कि धारणा बना लेते हैं |
                 इसी वजह से हमने कई धोखे खाए हैं और कई बार दुर्लभ और ज्ञानवान लोगों को समझने में हम असफल रहे है|
                  हाल के ही परिदृश्य में यदि देखा जाये तो पता लग जाता है कि अब भी वही गलती हम दोहरा रहे है ,जैसे कि "जय-राम रमेश जी" (केंद्रीय पर्यावरण मंत्री) को लेकर कहें तो बात ठीक बैठती है| मेरे खुद के नजरिये में जयराम रमेश एक बहुत ही आला दर्जे के व्यक्ति हैं , उनके अन्दर विद्रोह सहज ही देखने को मिलता है और इस तरह का राजनीतिज्ञ वहुत मूल्यवान हो सकता है ,क्योंकि आलोचना जिसे यदि हम कहें सकारात्मक आलोचना कई नए विचारों कि जननी रही है | कोई भी विचार कभी भी पर्याप्त नहीं है ,कभी संपूर्ण नहीं है , समय समय पर विचारों का परिवर्तन अत्यंत ही आवश्यक है | 
                 और फिर खुद जयराम रमेश एक वुद्धिजिवी व्यक्ति हैं उनका आशय हमेशा से विचारों के परिवर्तन और परम्पराओं जैसे आडम्बरों को बदल देना है न कि किसी भी तरह से किसी व्यक्ति और किसी संसथान कि बुराई करना ,
वर्तमान में उनके आई.आई.टी. को लेकर कही गई बातों का मतलब मुझे ये दिखाई पड़ता है कि वे वर्तमान में शिक्षा पद्धतियों को लेकर संतुष्ट नहीं है और शिक्षकों से उनकी वैचारिक रीतियों को बदलने कि बात कर रहे है , न कि किसी भी तरह किसी कि बुराई कर रहे हैं |
                 उनके द्वारा कहे आलेख से ये जाहिर हो रहा है कि वे जिस तरह से भारतीय संस्थानों कि तुलना विदेशी संस्थाओं से कर रहे हैं उस का मतलब सिर्फ ये है कि हमें शिक्षा के अंतर्गत विदेशी अंदाज में स्वतंत्रता का परिवेश देना चाहिए जिससे कि मौलिक शोध कर पाने कि सुविधा मिल सके |
                 में खुद भी एक एम्.टेक. विद्यार्थी हूँ और वर्तमान में जो परिदृश्य देखता हूँ वह वेहद ही पारम्परिक है, हम आज भी कुछेक निश्चित विषयों को मान्यता देते हैं और वैकल्पिक विषयों को लेकर कम ही रूचि दिखाते हैं  इसके चलते ही भारत मौलिक शोध देने में पीछे दिखाई देता है | 
                 इसीलिए यदि जयराम जी कहते है तो उनका मतलब है कि वैचारिक परिवर्तन किये जाना जरुरी है , इस बात को लेकर हमें पुरे बजट कि तुलना करने कि जरुरत नहीं, न ही किसी भी तरह शिक्षकों कि क़ाबलियत को दर्शाने कि जरुरत है बस हम बात को समझ कर थोडा परिवर्तन करैं ,और वैचारिक परिवर्तन अपने आप ही सुविधाओं के नए मार्ग प्रशस्त कर देते है |
                  हाँ बात करते करते कभी-कभी  व्यक्ति अपनी परिधि छोड़ कर बहार निकल जाता है पर ये इस तरह के आला दर्जे के व्यक्ति हेतु नगण्य हैं और मापने लायक नहीं है |हाँ यदि शब्दों को पकड़ना है तो अभी भी नब्बे प्रतिशत ऐसे नेता है जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ और है ,और इस तरह के कागजी शेरों के शब्दों को व्यक्ति पकड़ नहीं पता, जो कि अत्यंत ही नुकसानदायक है |      


       

Saturday, 28 May 2011

क्या भ्रष्टाचार का सरोकार सरकार से ही है

एक सुबह जब यात्रा करते वक्त देखा की टी. सी. महोदय एक महिला से दंड-शुल्क वसूल कर रहे थे,कुसूर ये था की उस महिला ने सामान्य टिकट लेकर आरक्षित बोगी में कदम रख दिया था ,ठीक है कोई बात नहीं | उस स्टेशन से कई और लोग भी थे जो की बिना टिकट  यात्रा कर रहे थे , एक और युवक से पूछा गया तो पता चला की टिकट ही नहीं है और ये तो भारत देश में नयी बात नहीं  आखिर गरीबी तो गरीबी ही है ,लेकिन उस युवक को पास के ही स्टेशन पर उतरना था तो टी.सी. महोदय उसे साइड में ले गए और फिर क्या था, टिकट के बदले टिकट से भी कम कीमत में दोनों का सौदा तय हो गया, टी.सी. भी खुश और वह युवक भी खुश|
               ऐसे कई वाक्ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से होकर गुजरते है और तो और खुद हमारे ही अथक प्रयासों से चलायमान भी है पर इस तरह का भ्रष्टाचार तो हमारे समाज में और देश में जायज  है ,अपने काम को सही समय पपर पूरा कराने को दी जा रही छोटी भेंट तो लाजमी है, कोई भी (सिवाय कुछ अपवादों के जो की सामाजिक नहीं माने  जाते ) इस तरह के भ्रष्टाचार के विरोध में दिखाई नहीं पड़ता यहाँ तक की इसे भ्रष्टाचार कहा ही नहीं जाता | और हो भी कैसे समाज में हो  रही "रेस" के चलते इतना समय किसके पास है |
               हर तरफ भ्रष्टाचार है और ये करता कौन है खुद "जनता", पद की गरिमा के हिसाब से भेंट जायज भी है और मान्य भी | पर यही भ्रष्टाचार यदि करोड़ों में हो जाये तो फिर चिंता का विषय मालूम होता है| आखिर मामला इतनी बड़ी रकम का है जिसका यदि एक हिस्सा ही हमें मिल जाये तो फिर क्या पूछने काम ही बन जाये ,और रेस में इतनी जल्दी आगे कैसे निकल सकता है कोई, हम तो अभी वहीँ के वहीं रह गए ,ये तो भई खेल-खेल में बेमानी की बात हुई | 
               यदि कोई आवाज उठाना भी चाहे तो माँ कहती है - की आखिर जान खतरे में डालने का क्या फायदा और भी तो लोग है जो अपना काम चला रहे है बस बैसे ही आगे बढते रहो | बात सही तो नहीं कही जा सकती पर जायज जरुर है क्योंकि इस समाज में तो आलोचना करना ही दुश्मनी माना जाता है फिर तो बात गलत के खिलाफ आवाज उठाने की है | ये जान गवा देने के भय से ईमानदार भी बैमानी करने पर मजबूर हो जाते है और यही भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य भी है फिर किस देश और किस समाज पर गर्व करने की विद्यालयों में शिक्षा दी जाती है क्या इसी तरह की संस्कृति पर हम सदियों से गर्व करते चले आ रहे हैं जिसकी किताबों में तो बहुत मान्यताओं की बात की जाती है  पर असल जिंदगी में समाज की हालत कुछ और ही बयां करती है|
                    सरकारों पर तो जनता बड़ी जल्दी रौस प्रकट कर देती है कभी खुद की गिरहबान में झांककर देखने की तो हिम्मत ही नहीं कर पाती | फिर आखिर ये सरकार कौन है , ये नेता कौन है , ये सभी इसी जनता के बीच से ही निकलते हैं , और सभी बहुत अच्छी तरह से जानते है की नेता प्रारंभ से ही नौटंकीबाज़ होता है , ऊपर से तो नैतिक और अन्दर से चालाक शिकारी ,फिर हम ही अपने कुछ छोटे -छोटे स्वार्थों के चलते छुटभैयों को नेता बना देते है और फिर कहते है की नेता गलत है , भ्रष्टाचारी है, और हो क्यों न हम भी तो आतंरिक स्तर पर नेता ही है बस बात ये है की हमारे हाथ में भ्रष्टाचार करने की परिस्तिथि नहीं है |
                    भ्रष्टाचार का सम्बन्ध सदियों से है आज से नहीं, कितनी ही सरकारें आयीं सभी ने भ्रष्टाचार किया सवाल सिर्फ ये है की हम किस समय इसे देख पाने में सक्षम हो सके | आज फिर भी हालत वेहतर है, भ्रष्टाचार पूरी तरह से उजागर है , हर व्यक्ति अपनी बात कहने और आलोचना करने के लिए स्वतंत्र दिखाई देता है हम भ्रष्टाचार देख पा रहे है ये अच्छे लक्षण है , और कई सरकारों ने भी खूब भ्रष्टाचार किया और जनता को और मुद्दों  में उलझाये रखा |
                     देश में भ्रष्टाचार कम करने के लिए जरुरी है हमारे प्रारंभिक ढाचे जैसे की शिक्षा में बदलाव की जरुरत है | हमें जरुरत है की बचपन से ही बच्चों को सत्य के लिए लड़ना सिखाया जाये , उन्हें इतना समझदार बनाया जाये जिससे वे सच को वखुबी समझ सके ,और वेबजः के प्रलोभनों से दूर रहना सीख पायें , और इन सभी के लिए जरुरी है की हम खुद भ्रष्टाचार के मूल कारणों से बाकिफ हो और अपनी वेतुकी मान्यताओं से उबर सकें|
                      कानून बनाना अब तक किसी भी तरह अपराध को रोक पाने में सक्षम नहीं रहा है और तो और आदमी और ज्यादा चालाक बनकर सामने आया है , और फिर कानून तो बनाये ही जाते है तोड़ने के लिए |
 

Sunday, 7 November 2010

ओह ! तो यहाँ है भगवान्

एक दिन कि बात है -

जब भगवान्  काफी थका हुआ महसूस कर रहे थे  कारण ये था कि वे अब लोगों कि इक्षाओं कि पूर्ति करते-करते परेशान हो गए थे .
फिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने कुछ नया करने का सोचा.
वे अपने सलाहकार से बोले -
     "हे सलाहकार जी ! में अब तंग आ गया हूँ ये मानव प्रजाति मुझे परेशान किये हुए है ; कोई मुझे कहीं से बुलाता है तो कोई कहीं से     पूर्व  से आवाज आती है तो कहीं पश्चिम से ,एक ख्वाहिश पूरी कर नहीं पाता कि दूसरी अर्जी आगे आ जाती है,
    में अब अपने आप को भी समय देना चाहता हूँ , तो मैंने सोचा है कि अपना ब्रह्माण्ड काफी बड़ा है उसमे अभी भी बहुत खाली जगह है
जहां मानव कभी नहीं पहुँच सकता तो क्यों न वहीं पर डेरा जमाया जाये."
  
  इस पर से सलाहकर बोले - "नहीं नहीं , ये आप क्या कह रहे है , आप तो जानते ही है कि इंसानों कि महत्वाकांक्षा वहुत प्रबल है  वे अब पृथ्वी के बाहर कदम रख चुके है  और आप कहीं भी चले जाईये वे वहाँ तक कभी न कभी पहुँच ही जायेंगे ,और आप हर जगह ही भीड़ का अनुभव करेंगे."

 तब भगवान बोले -"तो फिर क्या इस समस्या का कोई हल नहीं है "

 सलाहकार बोले -"हल तो है श्रीमान! और बहुत सरल है आप को कुछ और न करके सिर्फ इतना ही करना है  आप अपना निवासस्थान कही और न बना के खुद मानव  के अन्दर ही बना ले , क्योंकि मानव कहीं भी चला जाये वो कभी भी अपने अन्दर झाँकने कि  कोशिश नहीं करना चाहता है  और  इस सारी कायनात में  वही एक इकलौती जगह है जहाँ आप खुश रह पायेंगे  "
        
फिर क्या था भगवान् ने वैसा ही किया, और आपको बड़ा अचम्भा होगा ये जानकर  कि भगवान् तब से लेकर अब तक  वहीँ पर है और बहुत खुश भी है ,वैसे तो वहाँ कोई पहुँचता नहीं और यदि वहुत ही दुर्लभ कोई कभी पहुँच भी जाता है तो भगवान् उसे अपना मित्र बना लेते हैं .

Saturday, 21 August 2010

महाविद्यालयों मैं चल रही मनमानी

यह बात सर्वथा सत्य है कि मानवीयता सदैव ही आगे कि ओर अग्रसर रही है,जैसे कि हम प्रारंभिक तौर पर पशु थे फिर निरंतर विकास कि ओर प्रवत्त रहे और अंततः हम इस दौर में है जब कि हम सभ्य कहलाते है .अर्थात निरंतर परिवर्तन होते रहे, यहाँ पर इस बात का विशेष ध्यान रखा जाये कि बात वैचारिक परिवर्तनों कि हो  रही है न किअंधाधुन्द होते शहरीकरण कि .
           परिवर्तन आवश्यक है हम वर्तमान का आंकलन कभी भी पुराने ढंग से नहीं कर सकते,अर्थात समय के साथ साथ हर संस्कृति, हर शैली में परिवर्तन आवश्यक है
           शिक्षा के  क्षेत्र में भी परिवर्तन हुए है जैसे कि आज इस बात पर जोर दिया जाता है कि विद्यार्थी कोई वस्तु नहीं है , उन्हें बंधी बनाकर नहीं सिखाया जा सकता. बात  पूर्णतः सत्य भी है विद्यार्थी पर किसी भी प्रकार का  शारीरिक और मानसिक आघात वर्जनीय होना ही चाहिए. दरअसल इस तरह कि शैली  का निर्माण किया जाना चाहिए जिससे विद्यार्थी स्वतः ही शिक्षा कि  ओर प्रवत्त हो .
           इस सन्दर्भ में आमिर खान निर्मित फिल्मे "तारे जमीं पर " और "थ्री इडियट" काबिले तारीफ है . खासतौर पर "थ्री इडियट"  कि सफलता से उचे ओहदों पर बैठे  शिक्षक  और कार्यकारणी सदस्यों को  शिक्षा लेनी चाहिए , कि आखिर किस तरह के स्नातक तैयार करना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए .
        ये बात बड़े शर्म की है कि उच्च शिक्षा शैक्षणिक संस्थाओं में जिन्हें शिक्षा का मंदिर कहा जाता है भ्रष्टाचार और अहंकार 
साफ़ नजर आते है . महाविद्यालयों मैं चूँकि शिक्षक विद्यार्थियों पर हाथ नहीं उठा सकते तो उनके पास शोषित करने के कई और तरीके हैं  जैसे किसी को पास या फ़ैल करना भी कुछ प्रतिशत उनके हाथ में है जिसके जरिये वे आसानी से अपने अभिमान को पोषित कर लेते हैं . ये उत्तरदायित्व तो शिक्षक का है कि वह विद्यार्थियों कि मनोदशा समझते हुए कुछ ऐसे क्रियाशील तरीके विकसित करे जिससे कि शिक्षा में आकर्षण पैदा हो सके.
         उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों कि उदासीनता का  कारण  कुछ फीसदी तक  शिक्षकों का अहंकार , उनके अवैज्ञानिक तरीके तथा संकुचित व्यवहार  भी है .हाँ ये बात भी सच है कि कुछ एक विद्यार्थी शिक्षा का केवल  नाम करना चाहते है पर कहीं न कहीं उसका  जिम्मेदार भी सामाजिक ढांचा ही है  और फिर हरेक को एक ही नजरिये से देखना मूर्खता है.
                      ऊँचे स्तर कि शिक्षा में आवश्यक है कि विद्यार्थियों से मित्रवत व्यवहार करते हुए उनकी समस्याओं , उनकी गतिविधियों  से अवगत हो उनको मार्गदर्शन प्रदान किया जाये , डाट -डपट कर, उन्हें भविष्य में आगे न बढने देने कि धोंस देकर मजबूर करना निहायत ही अमानवीय है . 
          एक स्याह पहलु ये भी है कि आखिर ये किस तरह का "वायरस" सारे  भारतीय संस्थानों में व्याप्त है कि जितना बड़ा ओहदा उतना ही गंभीर अहंकार ,आखिर क्यों कर ये दफ्तरशाही व्याप्त है , व्यक्ति आखिर सहज क्यों नहीं है ,थोडा सा पद पाते ही पाँव जमीन पर नहीं टिकते , बोलने का अंदाज़ बदल जाता है ; फिर यही लोग अपने उपर होते भ्रष्टाचार को देख कर रोना रोते है . ये बात लोगों को समझ क्यों नहीं आती कि यदि नींव ही खोखली है तो फिर भवन मजबूत कैसे हो सकता है .
              अंततः यह बात याद रखने योग्य है कि वास्तव में हम इंसान से बढ़कर और कुछ भी नहीं . पद ,प्रतिष्टा,धन  यह सब झूठ है ये सब शांति कर नहीं हो सकते , व्यक्ति को  पूर्णता का भाव तभी प्राप्त हो सकता है जब वह नितांत सहज हो .